मिर्जा गालिब के शेर

(1) ये न थी हमारी किस्मत की विसले यार होता, यदि और होती किस्मत तो और इंतजार होता।
(2) तेरे वादे पर जीए हम तो ये जान झूठ जाना, खुशी से मर न जाते अगर एतबार होता।
(3) हर एक बात पे केहते हो तुम की तू क्या है, तुम्ही बता दो की ये अंदाजे गुप्तगु क्या है। रगों में दौड़ते फिरने के हम नहीं कायल, जो आंख से ना टपका तो लहू क्या है। जला है जिस्म जहाँ दिल भी जल गया होगा, खुरेदते हो अब राख जुपत्जु क्या है। बना है शेह का मुशाहिर फिरे है इतराता, वगराना शहर में गालिब की आबरू क्या है।
(4) सिकायते तो बहुत है ऐ जिंदगी लेकिन जो, तुमने दिया है वो हर किसी को नसीब नहीं होता।
(5) जहर का भी अपना अलग ही हिसाब है, मरने के लिए थोड़ा पर जीने के लिए, बहुत सारा पीना पड़ता है।
(6)हर गलती पर पर्दा सिर्फ खुदा डालना जनता है, वरना इंसान तो इज्जतत भी नहीं छोड़ते।
(7)वो आए मेरे कब्र पर अपने हमसफर के साथ, कौन कहता है दफनाए हुए को जलाया नहीं जाता।
(8)छोर दो अब उससे वफा की उम्मीद गालिब जो, रुला सकता है वो भुला भी सकता है।
(9)दुःख देकर सवाल करते हो, तुम भी गालिब कमाल करते हो। (10) उनको देखते है तो मुख पे जो आ जाती है रौनक, और वो समझते है की बीमार का हाल ठीक है।
(11) हजारों ख्वाईसे ऐसी की हर ख्वाइश पे दम निकले, बहुत निकले मेरे अरमान फिरभी कम निकले।
(12) उम्र भर गालिब बस यही गलती करते रहे, धूल चेहरे पर थी और हम आइना साफ करते रहे।
(13) नाढूंढ़ मेरा किरदार दुनिया के भीड़ में, वफादार अक्सर तन्हा ही मिलते है।
(14) कितना खौफ होता है रात के अंधेरों में, पूछो उन परिंदो से जिनके घर नहीं होते।
(15) गुजर जाएगा ये दौर भी गालिब, थोड़ा सब्र तो रख जब खुशी ही ना ठहरी तो गम की क्या औकात।
(16) मोहोबत की भी अपनी बचकानी जिद्द होती है, चुप कराने के लिए भी वही चाहिए जो रुला कर गया हो।

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